Doosri Dhaala (Stanza -1)
ऐसे मिथ्यादृग ज्ञान चर्ण ,बस भ्रमत भरत दुःख जन्म मर्ण
ताते इनको ताजिये सुजान,सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान
शब्दार्थ
१.मिथ्यादृग -मिथ्या दर्शन
२.चर्ण-चरित्र
३.बस-वशीभूत हो-कर
४.मर्ण -मरण के
५.भरत-भोग रहा है
६.ताते-इसलिए
७.सुजान-बहुत अच्छी तरह से जान कर
८.ताजिये-त्याग कीजिये.
९.तिन-इन तीनों का (मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चरित्र का)
१०.संक्षेप-कम शब्दों में
भावार्थ हमने पिछली ढाल में जाना के यह जीव जन्म मरण के दुखो को भोगता रहता है,और अनादी काल से भोगता आया है,इसका एक कारण तोह हमने पहली ढाल में ही जाना की इस जीव ने मोह रुपी महा मदिरा पी राखी है,जिसके कारण वेह संसार में भटक रहा है,यानी कि हम भी संसार में इसी के कारण भटक रहे हैं,अब कविवर ने इसका दूसरा कारण यह भी बताया है कि हमने मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चरित्र को अपने लिया है,यह जीव अनंत काल से मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चरित्र का पोषण कर रहा है,और इन मिथ्या ज्ञान चरित्र के वश में आकर संसार में भ्रमण कर रहा है और जन्म मरण के दुखों को सेहन कर रहा है,भोग रहा है,इसलिए कवि कह रहे हैं कि इनको ताजिये,इसीलिए इनका त्याग कीजिये….कवि कह रहे हैं…अब मैं इन तीनो (मिथ्या दर्शन-ज्ञान-चरित्र) का संक्षेप में वर्णन कर रहा हूँ…
Doosri Dhaala (Stanza -2)
जीवादि प्रयोजनभूत तत्व,सार्धे तिन माहि विपर्ययत्व
चेतन का है उपयोग रूप,बिन मूरति चिनमूरति अनूप.
शब्दार्थ
१.जीवादि-जीव अदि सात तत्व (जीव,अजीव,आश्रव,बांध,संवर,निर्जरा और मोक्ष)
२.प्रयोजनभूत-सार भूत तत्व
३.सार्धे-श्रद्धां करता है
४.तिन-इनका
५.विपर्ययत्व-विपरीत,उल्टा
६.चेतन-जिसका स्वाभाव जानना और देखना है
७.उपयोग रूप-जीव का स्वाभाव उपयोग रूप है,जानना और देखना उपयोग मय है.
८.बिन मूर्ती-अमूर्तिक
९.चिन मूर्ती-चैतन्य स्वरुप
१०.अनूप-उपमा रहित है,वर्णन रहित है.
भावार्थ कवि कहते हैं की जो यह जीवादि सात तत्व हैं (जीव,अजीव,अस्रव.बन्ध,संवर,निर्जरा और मोक्ष) यह प्रयोजन भूत तत्व हैं,यानी की सार भूत तत्व हैं,इनका उपयोगी स्वाभाव है,लेकिन इनमें यह जीव विपरीत श्रद्धां करने लगता है,और जीव अदि सात तत्वों को व्यर्थ का मानने लगता है,या मानता ही नहीं है…यही अगृहीत मिथ्यादर्शन है..चेतन जिसका स्वाभाव जानना और देखना है,यह उपयोग मय हैं,इसके ज्ञान और दर्शन हर समय उपयोग में लगे होते हैं,यह चेतन अमूर्तिक है,यानी की कोई स्वरुप नहीं है,और यह चेतन चैन्तान्य मय है,आनंद मय है,और इस जीव तत्व की उपमा नहीं है,यानी की यह अनुपम है,अवर्णनीय है,इसमें रंग गंध तोह है नहीं इसलिए इसका वर्णन नहीं कर सकते हैं…यही सच्चा श्रद्धां है जीव तत्व का.
Doosri Dhala Stanza -3
श्लोक -३
पुद्गल,नभ,धर्म,अधर्म,काल,इनतैं न्यारी है जीव चाल
ताको न जान विपरीत मान,करि करै देह में निज पिछान.!!३!!
शब्दार्थ
१.नभ-आकाश द्रव्य
२.इनतैं -इन पांचो से
३.ताको-इस बात को
४.विपरीत-उल्टा
५.देह-शरीर
६.पिछान-पहचान
भावार्थ: पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पञ्च अजीव द्रव्य हैं! जीव त्रिकाल ज्ञानस्वरूप तथा पुदगलादी द्रव्यों से पृथक (अलग) हैं , किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव आत्मा के स्वभाव की यथार्थ श्रद्धा न करके अज्ञानवश विपरीत मानकर, शारीर ही मैं हूँ , शरीर के कार्य मैं कर सकता हूँ, मैं अपनी इच्छानुसार शरीर की व्यवस्था रख सकता हूँ ऐसा मानकर शरीर को ही आत्मा मानता है! (यह जीवतत्व की विपरीत श्रद्धा हैं ! !!३!!
Doosri Dhaala (Stanza -4)
मैं सुखी,दुखी,मैं रंक,राव,मेरे गृह धन गोधन प्रभाव,
मेरे सुत तिय मैं सबलदीन,मैं सुभग,कुरूप,मूरख प्रवीन.
शब्दार्थ
१.रंक-गरीब
२.राव-राज
३.गोधन-गाय बैल
४.प्रभाव-बड़प्पन
५.सुत-पुत्र
६.तिय-स्त्री
७.सबल-ताकतवर
८.दीन-कमजोर
९.सुभग-सुन्दर
१०.कुरूप-बदसूरत
११.मूरख-बेबकूफ,अज्ञानी
१२.प्रवीन-बुद्धिमान
भावार्थ जीवत्व की भूल: जीव तो त्रिकाल ज्ञानस्वरूप हैं, परंतु जीव इस बात इस बात को ना समझते हुए , यह समझता है की वह शरीर है | वह यह सोचता है कि शरीर के कार्य मैं कर सकता हूँ, शरीर स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो, बाह्य अनुकूल संयोगो से मैं सुखी और प्रतिकूल संयोगो से मैं दुखी, मैं निर्धन, मैं धनवान, मैं बलवान, मैं निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मैं सुंदर – ऐसा मानता हैं; शरिराश्रित उपदेश तथा उपवसादी क्रियाओं मे अप्नतव मानता हैं इत्यादि मिथ्या अभिप्राय द्वारा जो अपने परिणाम मानता हैं, वह जीवततव की भूल हैं!
Doosri Dhaal (Stanza – 5)
शरीर उपज अपनी उपज मान,शरीर नशत आपनो नाश मान,
राग अदि भाव प्रकट दुःख देन,तिन्ही को सेवत गिनत चैन.
शब्दार्थ
१.उपज-उत्पत्ति
२.नशत-मरण,नाश
३.आपनो-अपना,खुद का
४.प्रकट-दिखाई देते हैं,साफ़ प्रतीत होते हैं
५.तिन्ही -राग द्वेष भावों को
६.गिनत-मानता है
७.चैन-सुख
भावार्थ :
(१) आजीव्ततव की भूल: मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा मानता हैं कि शरीर की उत्पति (संयोग) होने से मैं उत्तपन हुआ और शरीर का नाश (वियोग) होने से मैं मर जाऊंगा , (आत्मा का मरण मानता हैं;) धन, शरीररादि जड़ प्रदार्थो मे परिवर्तन होने से अपने में इष्ट-अनिष्ट मानना, शरीर क्षुधा -त्रिशारूप अवस्था होने से मुझे क्षुधा त्रिषादी होते हैं; शरीर कटने से मैं कट गया इत्यादि जो अजीव की अवस्थाए हैं, उन्हे अपनी मानता हैं – यह अजीव्तत्व की भूल हैं!
(२) आस्रातव की भूल : जीव अथवा अजीव कोई भी पर पदार्थ आत्मा को किंचित भी सुख दुख, सुधार- बिगाड़, ईष्ट-अनिष्ट नही कर सकत्ते, तथापि अज्ञानी ऐसा नही मानता! पर मे क्रतृत्व, ममत्वरूप मिथ्यातव तथा राग द्वेषादि शुभारंभ आस्रवभाव प्रत्यक्ष दुख देने वाले हैं, बंध के ही कारण हैं, तथापि अज्ञानी जीव उन्हे सुखकर जानकार सेवन करता हैं, और शुभभव भी बाँध का ही कारण हैं आस्रव हैं, उसे हितकर मानता हैं! परद्रव्य जीव को लाभ- हानि नही पहुँचा सकते, तथापि उन्हे ईष्ट-अनिष्ट मानकर उनमे प्रीति-अप्रीति करता हैं; मिथ्यातव, राग- द्वेष का स्वरूप नही जानता; पर पदार्थ मुझे सुख- दुख देते हैं अथवा राग- द्वेष मोह कराते हैं ऐसा मानता हैं, वह आस्रवतत्व की भूल हैं!
Doosri Dhaal (Stanza -6)
शुभ अशुभ बंध के फल-मंझार,रति-अरति करे निजपद विसार,
आतम हित हेतु विराग ज्ञान,ते लखै आपको कष्टदान
शब्दार्थ
१.बंध-कर्मों का आत्मा के प्रदेशों में एकमेव होकर मिल जाना.
२.मंझार-में
३.रति-हर्ष,ख़ुशी
४.अरति-दुःख,विलाप,शोक
५.निजपद-दर्शन और ज्ञान स्वाभाव
६.विसार-भूल कर
७.विराग-वैराग्य धर्म की बातें
८.लखै-लगता है
९.कष्टदान-दुःख दाई,परेशान करने वाला
भावार्थ : बंधत्व की भूल अघतिकरम के फलानुसार पदार्थो की सयोंग-वियोगरुप अवस्थाये होती हैं! मिथ्यवृष्टि जीव उन्हें अनुकूल- प्रतिकूल मानकर उनसे मैं सुखी-दुखी हूँ ऐसी कल्पना द्वारा राग-द्वेष, आकुलता करता हैं! धन, योग्य स्त्री, पुत्रादि का संयोग होने से रति करता हैं पुण्य-पाप दोनों बंधनकर्ता हैं, किन्तु ऐसा न मानकर पुण्य को हितकारी मानता है; तत्वदृष्टि से तो पुण्य-पाप दोनों अहितकर ही हैं; परन्तु अज्ञानी ऐसा निर्धाररूप नहीं मानता वह बंधतव की विपरीत श्रद्धा हैं !
(२). संवरतत्व की भूल निश्चयसम्यग्दर्शन - ज्ञान-चरित्र ही जीव को हितकारी हैं; स्वरुप में स्थिरता द्वारा राग का जितना अभाव वह वैराग्य हैं और वह सुख के कारणरूप हैं; तथापि अज्ञानी जीव उसे कष्ट्दाता मानता हैं यह संवरतत्व की विपरीत श्रद्धा हैं!
Doosri Dhala (Stanza – 7)
रोके न चाह निज शक्ति खोय,शिवरूप निराकुलता न जोय,
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान,सो दुःख दायक अज्ञान जान.
शब्दार्थ
१.चाह-पाचों इन्द्रिय के विषय
२.शिव रूप-मोक्ष रूप,मोक्ष,सिद्ध स्वरुप
३.निराकुलता-दुःख से रहित
४.जोय-होता है
५.याही-यह
६.प्रतीति-विश्वास
७.जुट-अग्रहित मिथ्यादर्शन
८.कछुक-थोडा सा
भावार्थ:
निर्जरातत्व की भूल : आत्मा में आंशिक शुद्धि की वृद्धि तथा अशुद्धि की हानि होना, उसे संवरपुर्वक निर्जरा कहा जाता हैं; वह निश्चयसम्यग्दर्शन पूर्वक ही हो सकती हैं! ज्ञानान्द्स्वरूप में स्थिर होने से शुभ-अशुभ इच्छा का निरोध होता हैं वह तप हैं!
तप दो प्रकार का हैं (१) बालतप (२) सम्यकतप;
अज्ञानदशा में जो तप किया जाता हैं,वह बालतप हैं, उससे कभी सच्ची निर्जरा नहीं होती; किन्तु आत्मस्वरुप में सम्यक प्रकार से स्थिरता-अनुसार जितना शुभ-अशुभ इच्छा का अभाव होता हैं, वह सच्ची निर्जरा हैं सम्यकतप हैं ; किन्तु मिथ्यावृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता! अपनी अनन्त ज्ञानादि शक्ति को भूलकर पराश्रय मैं सुख मानता हैं, शुभाशुभ इच्छा तथा पांच इन्द्रियों के विषयों की चाह को नहीं रोकता यह निर्जरातत्व की विपरीत श्रद्धा हैं!
मोक्षतत्व की भूल : पूर्ण निराकुल आत्मिक सुख की प्राप्ति अथार्त जीव की सम्पूर्ण शुद्धता वह मोक्ष का स्वरुप हैं तथा वही सच्चा सुख हैं; किन्तु अज्ञानी ऐसा नहीं मानता!
मोक्ष होने पर तेज में तेज मिल जाता हैं अथवा वहा शरीर, इन्द्रिया तथा विषयों के बिना सुख कैसे हो सकता हैं? वहां से पुन: अवतार धारण करना पड़ता हैं इत्यादि! इसप्रकार मोक्षदशा में निराकुलता नहीं मानता,वह मोक्षतत्व की विपरीत श्रद्धा हैं!
अज्ञान अगृहित मिथ्यादर्शन : के रहते हुए जो कुछ ज्ञान हो, उसे अगृहित मिथ्यादर्शन कहते हैं; वह महान दुखदाता हैं! उपदेशादी बाहय निमितो के आलम्बन द्वारा उसे नवीन ग्रहण नहीं किया हैं, किन्तु अनादिकालीन हैं, इसलिए उसे अगृहित मिथ्याज्ञान कहते हैं !
Doosri Dhala (Stanza – 8)
इन जुत विषयन में जो प्रवर्त,ताको जानो मिथ्याचरित्र
यों मिथ्यात्व अदि निसर्ग जेह,अब जे गृहीत सुनिए सु तेह.
शब्दार्थ
१.इन-यह
२.जुत-अग्रहित मिथ्यादर्शन और अग्रहित मिथ्याज्ञान
३.विषयन-पांचो इन्द्रियों के पोषण में
४.प्रवर्त-प्रवर्ती करता है,श्रद्धां करता है
५.ताको-इस को
६.मिथ्याचरित्र-झूठा चरित्र
७.यो-यह
८.निसर्ग-अग्रहित
९.गृहीत-ग्रहन किया हुआ
१०.सु-भली तरह से जान कर
११.तेह-इनको
भावार्थ: अगृहित मिथ्यादर्शन तथा अगृहित मिथ्याज्ञान सहित पाँच इन्द्रियों के विषय में प्रवृति, करना उसे अगृहित मिथ्यचरित्र कहा जाता हैं ! इन तीनो को दुख का कारण जानकर तत्वज्ञान द्वारा उनका त्याग करना चाहिए!
Doosri Dhala (Stanza – 9 And 10)
जो कुगुरू,कुदेव,कुधर्म सेव पोषे चिर दर्शन-मोह एव,
अंतर रागादिक धरैं जेह,बहार धन अम्बर ते सनेह
धारे कुलिंग लही महत भाव ते कुगुरू जन्म-जल उपल नाव.
जे राग द्वेष मल करि मलिन,वनिता गदादिजुत चिन्ह चीन
शब्दार्थ
१.कुगुरू-खोटे गुरु
२.कुदेव-खोटे देवी-देवता
३.कुधर्मं-खोता धर्म,झूठा धर्म
४.पोषे-पुष्ट करता है,मजबूत या बलवान करता है
५.चिर-काफी लम्बे समय तक
६.दर्शन-मोह – दर्शन मोहनिया कर्म
७.एव-और
८.अंतर-अन्दर,मन में
९.धरैं-धारण करते हैं
१०.सनेह-प्रेम आसक्ति
११.कुलिंग-खोटा या झूठा वेष
१२.लही-रख्रे हैं
१३.महत्-महंत पाना,साधू पाना,बड़प्पन
१४.उपल-पत्थर
शब्दार्थ
१.मल-गंध्गी
२,मलिन-सने हुए,गंधे हो रखे हैं
३.वनिता-स्त्री
४.गदादिजुत-गदा,तलवार अदि अस्त्र शस्त्र
५.चिन्ह-लक्षण
६.चीन-पहचाने जाते हैं
७.कुदेव-खोटे,झूठे देव
८.तिन्कू-इन कुदेवों की
९.सेव-सेवा करना,पूजा करना,श्रद्धान करना,अनुमोदन करना,हाथ जोड़ना
१०.शठ – मूर्ख
११.तिन-उसके
१२.भाव-भ्रमण-संसार के भ्रमण
१३.छेव-अंत
१४.न-नहीं
भावार्थ : कुगुरू, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने से दीर्घकाल तक मिथ्यातव का ही पोषण होता हैं अथार्त कुगुरू, कुदेव और कुधाराम का सेवन ही गृहित मिथ्यादर्शन कहलाता हैं !
परिग्रह दो प्रकार का हैं – एक अतरंग और दूसरा बहिरंग !मिथ्यातव, राग-द्वेषादि अतरंग परिग्रह हैं और वस्त्र, पात्र, धन, मकान आदि बहिरंग परिग्रह हैं !
वस्त्रादि सहित होने पर भी अपने को जिनलिंगधारी मानते हैं, वे कुगुरू हैं ! ” जिनमार्ग में तीन लिंग तो श्रद्धापुर्वक हैं!
एक तो जिनस्वरूप- निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकरूप दंसवी – ग्यारहवी प्रतिमाधारी श्रवाकलिंग और
तीसरा आर्यिकाओ का रूप यह स्त्रियों का लिंग,
इन तीन के अतिरिक्त कोई चोथा लिंग सम्यग्दर्शनस्वरुप नहीं हैं इसलिए इन तीन के अतिरिक्त अन्य लिंगो को जो मानता हैं , उसे जिनमत की श्रद्धा नहीं हैं, किन्तु वह मिथ्यादृष्टि हैं!
इसलिए जो कुलिंग के धारक हैं, मिथ्यात्वादी अतरंग तथा, वस्त्रादि बहिरंग परिग्रह सहित हैं, अपने को मुनि मानते हैं, मनाते हैं, वे कुगुरू हैं ! जिसप्रकार पत्थर की नोका डूब जाती हैं तथा उसमे बैठने वाले भी डूबते हैं; उसी प्रकार कुगुरू भी स्वयं संसार -समुद्र में डूबता हैं और उनकी वंदना तथा सेवा – बहकती करनेवाले भी अनंत संसार में डूबते हैं अथार्थ कुगुरू की श्रद्धा, भक्ति, पूजा, विनय तथा अनुमोदन करने से गृहित मिथ्यातव का सेवन होता हैं और उससे जीव अनंतकाल तक भव -भ्रमण करता हैं !
Doosri Dhala (Stanza – 11 And 12)
ते हैं कुदेव तिनकू जो सेव,शठ करत न तिन भाव भ्रमण छेव
रागादिक भाव-हिंसा समेत,दर्वित,त्रस,थावर मरण खेत
ते क्रिया तिन्हे जानहु कुधर्म,सरधे तिन्हे जीव लहैं अशर्म
याकु गृहीत मिथ्यात्व जान,अब सुन गृहीत जो है अज्ञान
शब्दार्थ
१.रागादिक-राग,द्वेष,इर्ष्या और मोह
२.दर्वित-द्रव्य हिंसा
३.त्रस-त्रस जीवों की हिंसा
४.थावर-स्थावर जीवों की हिंसा
५.मरण-मृत्यु,हिंसा
६.खेत-स्थान
७.तिन्हे-इन क्रियायों को
८.लहै-प्राप्त करता है
९.अशर्म-दुःख
१०.याकु-इन कुदेव,कुगुरू और कुधर्म की पूजा,सेवा,श्रद्धा,हाथ जोड़ना,पूजना
११.गृहीत-उपदेश से ग्रहण किया हुआ
१२.मिथ्यात्व-झूठ
१३.अज्ञान-गृहीत मिथ्याज्ञान
भावार्थ ११: जो राग द्वेषरूप मैल से मलिन (रागी-द्वेषी) हैं और स्त्री, गदा, आभूषण आदि चिन्हों से जिनको पहिचाना जा सकता है, वे ‘कुदेव’ कहे जाते हैं! जो अज्ञानी ऐसे कुदेवो की सेवा (पूजा, भक्ति और विनय) करते हैं, वे संसार का अंत नहीं कर सकते अथार्त अनन्तकाल तक उनका भवभ्रमण नहीं मिटता!
भावार्थ १२: जिस धर्म में मिथ्यातव तथा रागादिरूप भावहिंसा और त्रस तथा स्थावर जीवो के घातरूप द्र्व्यहिंसा को धर्मं माना जाता हैं, उसे कुधर्म कहते हैं! जो जीव उस कुधर्म की श्रद्धा हैं, वह दुःख प्राप्त करता हैं ! ऐसे मिथ्या गुरु, देव और धर्म की श्रद्धा करना, उसे ”गृहित मिथ्यादर्शन” कहते हैं ! वह परोपदेश आदि बाहय कारण के आश्रय से ग्रहण किया जाता हैं , इसलिए ” गृहीत ” कहलाता हैं ! अब गृहीत मिथ्याज्ञान का वर्णन किया जा सकता हैं !
Doosri Dhala (Stanza – 13)
एकान्तवाद दूषित समस्त,विषयादिक पोषक अप्रशस्त
कपिलादी रचित श्रुत को अभ्यास,सो है कुबोध बहु दें त्रास
शब्दार्थ
१.एकान्तवाद-एकांत पक्ष
२.दूषित-गंध
३.समस्त-हर तरफ से
४.विषयादिक-पाँचों इन्द्रिय के विषय,मोह,माया,राग और द्वेष
५.पोषक-पुष्ट करने वाला
६.अप्रशस्त-खोटा
७.कपिलादी-खोटे गुरु
८.रचित-लिखित
९.श्रुत-वाणी,शास्त्र
१०.अभ्यास-पढना,पढ़ना,सुनना और सुनना
११.कुबोध-गृहीत मिथ्याज्ञान
१२.बहु-बहुत
भावार्थ: (१) वस्तु अनेक धर्मात्मक हैं; उसमें से किसी भी एक ही धर्म को पूर्ण वस्तु कहने के कारण से दूषित (मिथ्या) तथा विषय – कष्यादी की पुष्टि करने वाले कुगुरुओं के रचे हुए सर्व प्रकार के मिथ्या शास्त्रों को धर्मबुद्धि से लिखना- लिखाना, पढना- पढाना, सुनना- सुनाना; उसे गृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं!
(२) जो शास्त्र जगत में सर्वथा नित्य, एक, अद्वेत और सर्वव्यापक ब्रह्ममात्र वस्तु हैं, अन्य कोई पदार्थ नहीं हैं ऐसा वर्णन करता है, वह शास्त्र एकान्तवाद से दूषित होने के कारण कुशास्त्र हैं!
(३) वस्तु को सर्वथा क्षणिक – अनित्य बतलाये, अथवा (४) गुण- गुणी सर्वथा भिन्न हैं, किसी गुण के संयोग से वस्तु हैं ऐसा कथन करे अथवा (५) जगत का कोई कर्ता- हर्ता तथा नियंता हैं ऐसा वर्णन करे, अथवा (६) दया, दान, महाव्रतादिक शुभ राग; जो की पुण्यास्रव हैं, पराश्रय हैं, उससे तथा साधु को आहार देने के शुभभाव से संसार परित (अल्प, मर्यादित) होना बतलाये तथा उपदेश देने के शुभभाव से परमार्थरूप धर्म होता हैं इत्यादि अन्य धर्मियों के ग्रंथो में जो विपरीत कथन हैं, वे एकांत और अप्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैं; क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्वों की यथार्थता नहीं हैं ! जहाँ एक तत्व की भूल हो, वहा सातों तत्व की भूल होती हैं ऐसा समझना चाहिए !
Doosri Dhala (Stanza – 14)
जो ख्याति लाभ पूजादि छह,धरि कारन-विविध-विध देह्दाह
आतम अनातम के ज्ञान हीन,जे-जे करनी तन कारन छीन
शब्दार्थ
१.त्रास-दुःख
२..ख्याति-मान-सम्मान
३.लाभ-फायदा
४.पूजादि-पूजा,पाठ,पूज्य बनने की छह
५.विविध-विभिन्न प्रकार ले
६.देह-दाह-शरीर को प्रताड़ित करने वाली
७. कारन-करना
८.आतम-जीव,आत्मा के स्वरुप को जाने बिना
९.अनातम-मैं पर के ज्ञान
१०.हीन-नहीं
११.जे-जे -जितनी भी कार्य हैं,क्रिया हैं
१२.तन-शरीर
१३.छीन-कमजोर
भावार्थ: शरीर और आत्मा का भेदविज्ञानं न होने से जो यश, धन-सम्पति, आदर-सत्कार आदि की इच्छा से मानादि कषाय के वशीभूत होकर शारीर को क्षीण करने वाली अनेक प्रकार की क्रियाये करता हैं, उसे “गृहीत मिथ्याचरित्र” कहते हैं!
Doosri Dhala (Stanza – 15)
ते सब मिथ्यचरित्र त्याग अब निज आतम के पंथ लाग
जगजाल भ्रमण को देहु त्याग,अब दौलत निज आतम सुपाग
शब्दार्थ
१. मिथ्याचरित्र-खोटा,झूठा चरित्र,मिथ्या व्यवहार
२.पंथ-रास्ते पे
३.लाग-लग जा
४.सुपाग-भलि प्रकार से लीन होना
भावार्थ: आत्महितेषी जीव को निश्चय सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्र ग्रहण करके गृहीत मिथ्यादर्शन – ज्ञान – चरित्र तथा अगृहित मिथ्यादर्शन – ज्ञान -चारित्र का त्याग करके आत्मकल्याण के मार्ग में लगना चाहिए! श्री पंडित दौलतरामजी अपनी आत्मा को सम्बोधन करके कहते हैं की हे आत्मन! पराश्रयरूप संसार अर्थात पुण्य- पाप में भटकना छोड़कर सावधानी से आत्मस्वरूप में लींन हो !
Rodriguez 6dhal 3dhal
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